ये बात है मार्च महीने की, जब झुर्रियों से भरे नीम दादा छुट्टियों से वापिस आने को तैयार ही नहीं थे।
जब गाँव बसा था तभी उन्हें भी लाया गया था और जैसे गाँव की पगडंडी बढती रही वैसे वे भी अपनी शाखाओं को बढ़ाते गए। वे बहुत बड़े थे। गाँव के बीच उनके पास एक चोतरा (चबूतरा) बनाया गया था, जो इतना बड़ा था कि नीम दादा की तरह ही आधे गाँव को अपने ऊपर बैठा सकता था।
नीम दादा गाँव की हर बात में उसके साथ थे, जब कच्ची पगडंडी पक्की हुई, जब बच्चे संतोलिये से क्रिकेट खेलने लगे, जब बैल ट्रेक्टर में बदल गये ।
नई पत्तियों को वे झूला झूलाते और गर्मियों में वह छुट्टी पर अपने साथ दूसरे पेड़ों को भी ले जाते, और जाते – जाते काँटों को पहरेदारी की ज़िम्मेदारी देते ।
उन सब के बीच छोटा रामजी अपने दोस्तों के साथ खेलता, नीम दादा के ऊपर चढ़ जाता धीरे-धीरे जैसे समय चलता गया वह भी किसी ना किसी बहाने से अपने उन्हीं दोस्तों के साथ चोतरे पर वहाँ उनके साथ बैठता और उनके वापिस आने का इंतज़ार करता ।
जैसे ही बिरखा आती तो नीम दादा वापिस आ जाते और पत्तियाँ भी हरी हो जाती, फिर वह और बिरखा एक दूसरे के साथ खूब गाना गाते, पूरे वर्ष में एक वही समय होता जब नीम दादा नाचते हुए दिखते, पर इस बार ऐसा हुआ कि नीम दादा, बिरखा के आने के एक माह बाद भी छुट्टियों से वापिस नहीं लौटे। किसी को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वे अब तक आये क्यों नहीं। एक तरफ बिरखा हर तीसरे दिन आ रही थी, तो ऐसा भी नहीं के शायद उन्होंने सुना ना हो।
दूसरे सब पेड़ वापिस आ गए थे और उनकी पत्तियाँ भी हरी हो गई थी पर नीम दादा का कुछ पता नहीं था बस पीली चिट्ठियां लगाये ना जाने कहाँ चले गये।
उनकी कमी गाँव में सब को महसूस हो रही थी। अब भी रोज़ गोधूली के समय गाय उनके चोतरे (चबूतरे) के पास रुकती और आवाजें करती, शाम को रोज़ गाँव के सभी लोग आकर उस चोतरे (चबूतरे) के पास बैठ जाते और बातें करते। ये समझने के लिये कि इस बार नीम दादा को हुआ क्या है? किसान भी परेशान थे और कई बार उनके पास आकर कहते कि अगर वो नहीं आयेंगे तो फसलें भी इस बार नहीं आयेंगी। पर शायद नीम दादा इन सब आवाजों को अनसुना कर देते।
सभी उनको मनाने के लिए एक या दूसरा उपाय करते पर वे किसी को जवाब नहीं देते।
बहुत बैठकें बुलाई गई कि कहीं उनकी और बिरखा की लड़ाई तो नहीं हुई, पर समझ में ये आया कि बिरखा तो इस बार 3 महीने जल्दी ही आई है तो ऐसा होना तो संभव ही नहीं था।
छोटे नीम को फिर समझाया गया कि वह एक डाली को उनके पास हवा के साथ भेज दे तो वो शायद वापिस आ जाएं, छोटे नीम ने ऐसा किया भी, पर उसका भी नीम दादा की तरफ से कोई उत्तर नहीं आया।
किसानों ने मान लिया कि ये उनकी मर्ज़ी है, उनकी फ़सलें तो बिरखा आई है तो वह लेके आ जाएगी। बाक़ी सब ने एक दूसरे की बातो में उनकी कोई एक दो पत्तियों को हरा माना और फिर अपने आप को दूसरे महत्वपूर्ण काम – कारोबार के में लगा दिया। पर इन सब में रामजी काका रोज़ उन बातों की हरी पत्तियों को ढूँढते और ना दिखने पर और परेशान हो जाते।
उनकी चिंता उनके कपकपाते हाथों और धीमी, बातें दोहराती आवाज़ में सब को दिखती। कभी – कभी वे नाडी (छोटा तालाब) के पास देर रात तक बैठे रहते और कोशिश करते कि वह शायद कुछ बता दे, पर नाडी ने भी तो पिछले पाँच वर्ष से किसी से बात नहीं की थी।
उनको यही डर था कि वे नाडी के जैसे नीम दादा को ना खो दे। कहीं नीम दादा भी ना मौन हो जायें। नाडी की ज़रूरत को भी कोई पूरी नहीं कर पाया। उसके साथ दोपहर की शांति चली गई और अगर नीम दादा वापिस नहीं आये तो शाम का क्या होगा?
रामजी को बहुत बार समझाने की कोशिश की गई कि, “एक नीम ही तो है! हम दूसरे नीम लगा देंगे।” पर राम जी हर बार चिढ़ कर उठ जाते और ये कहते कि, “ऐसा नहीं होता, नीम दादा तब से है, जब से हम हैं यहाँ। तुम अपने आप को कैसे बदलोगे?
बड़बड़ाते – बड़बड़ाते चले जाते कि, “बिरखा तो आ गई नीम क्यों नहीं आया, सब तो वैसा ही है, हमेशा जैसा। हवा वैसे ही चल रही है, ठंडक भी है और मिट्टी भी महक रही है, तो नीम कहाँ रह गया?”
ऐसे ही एक दिन वे बड़बड़ाते – बड़बड़ाते वे नीम दादा के सामने आये और गोल गोल घूमने लगे। धीरे धीरे हवा तेज़ होने लगी और आँधी आ गई, रेत उड़ने लगी और नीम दादा ज़मीन पर धड़ाम से गिर गये।
इस आवाज़ से गाँव वाले बाहर आए और रेत की आँधी में अपनी आधी – आधी खुली आँखों से देख रहे थे कि नीम दादा ज़मीन पर गिर गये, उनकी विशाल शाखाओं के बीच रामजी काका अब भी गोल गोल घूम रहे थे और कह रहे थे कि, “नीम को नहीं बुलाना था, बिरखा को कहना था कि जल्दी आई हो, थोड़े दिन बाद आना।“
ये कैसा नज़ारा था किसी को समझ नहीं आया, आँधी चल रही थी, धूल उड़ रही थी, एक नीम का पेड़ शांत हो गया था, एक आदमी कुछ टहनियों की बीच गोल गोल घूम रहा था और बड़बड़ा रहा था कि, “नीम को नहीं बुलाना था, बिरखा को कहना था कि जल्दी आई हो थोड़े दिन बाद आना।“